ATMA KA EK HEE ABHUSHAN HAI SABHI SE ANANY PREM

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आत्मा का एक ही आभूषण है सभी से अनन्य प्रेम

हम जब अपना जीवन सिर्फ दैहिक स्तर पर जीते हैं तब एक शुष्कता व स्वार्थपरता हमारी जीवनशैली का हिस्सा बन जाती है। परंतु आत्मज्ञान की प्राप्ति हमें इस सत्य का परिचय प्रदान करती है कि आत्मा का एक ही आभूषण है प्रेम, सभी से अनन्य प्रेम, क्योंकि प्रेम में जो शक्ति है वह कहीं नहीं।

सभी महापुरुषों ने कहा है कि परमात्मा केवल प्रेम की भाषा ही जानते हैं, आप ने कितना दान किया आपने कितना चढ़ावा चढ़ाया यह सब भगवान नहीं जानते । भगवान तो यह जानते हैं कि सब उनके बच्चे। हम सब परमात्मा के ही यंत्र हैं प्रेम के यंत्र हैं। परंतु सांसारिक जीवन में हमारा प्रेम निर्लिप्त नहीं रह पाता हम जिसे प्रेम करते हैं उसे अपने ढंग से चलाना चाहते हैं चाहे वे परिवार के सदस्य हों, मित्रगण हों अथवा अन्य व्यक्ति। हम उनकी अच्छाई व बुराई में स्वयं को लिप्त कर लेते हैं।

श्री माताजी कहती हैं कि, लिप्त प्रेम ही प्रेम की मृत्यु है। अतः हमें इस निर्लिप्त प्रेम को सही रुप में समझना होगा, जिसमें आप अपने गौरव में खड़े होते हैं, और आपको हरेक व्यक्ति के प्रति संवेदना होनी चाहिए, हरेक के बारे में सोचना चाहिए….I

जब कभी आप ऐसा समझते हैं कि कोई व्यक्ति ठीक नहीं है, तो आप अपना संतुलन न खोएं, अपितु आप उस व्यक्ति को संतुलन में लेकर आएं। यदि आप अपना संतुलन खोना शुरू कर देंगे, तो आप उस व्यक्ति को कैसे अपना बना सकेंगे? और इस तरीके से संतुलन में रहकर, आप अपनी सारी घृणा, अपना सारा क्रोध, अपनी सारी वासनाएं या आप जिसे प्रतिस्पर्धा कह सकते हैं, वह सब, आप त्याग देंगे, क्योंकि आप अपने गौरव में खड़े हुए हैं।

आपको किसी से भी कोई प्रमाण पत्र नहीं चाहिए। आप किसी से भी किसी तरह की प्रशंसा नहीं चाहते। आप बस जानते हैं कि आप वहाँ हैं, और आप आत्मसंतुष्ट हैं।

(9 फरवरी 1992) सहजयोग ध्यान के माध्यम से आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति के पश्चात् निर्लिप्त प्रेम की जागृति सहजता से हमारे हृदय को प्रकाशित कर देती है।

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