सत्य की खोज Satya Ka Swaroop के बारे में अनादि काल से इस देश में अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। इसकी वजह यह है, कि इस भारत वर्ष की जो भूमि है, इस भूमि में बहुत से आशीर्वाद छिपे हुए हैं, जिसके बारे में हम जानते नहीं।
Reference : 1986-01-21 को सत्य, मुंबई (हिंदी) में जनसभा
यहां की आबोहवा इतनी अच्छी है, कि आप जब घर से निकलते हैं, आपको जैसे लंदन में लबादे लबादे लादने पड़ते हैं और निकलने से पहले 15 मिनट तैयार होना पड़ता हैं, ऐसी कोई आफत नहीं। बाहर आते ही प्रच्छन्न ऐसी सुंदर प्रच्छन्न हवा बहती रहती है। यहां एक इंसान जंगलों में भी, पहाड़ी में भी, झरनों के पार, नदियों के किनारे, बड़े आराम से अपना जीवन बिता सकता है।
यह हालत किसी भी देश में इतनी अच्छी नहीं है। या तो देश बहुत ज्यादा गर्म है, या बहुत ज्यादा ठंडे हैं। अतिशय्ता की प्रकृति होने की वजह से वहां पर लोगों को हर समय प्रकृति से झगड़ना पड़ता है, और ये संग्राम करते करते लोगों की वृत्ति आक्रमक; आक्रमण करने वाली हो जाती है। आप आक्रमणकारी हो जाते हैं।
जब पहली मर्तबा मैं लंदन गई थी, तो मैं सोचती थी कि यहां कोई प्रकोप है परमात्मा का कि श्राप है, कि आप बाहर एक मिनट भी खड़े नहीं हो सकते। शुद्ध हवा आप एक मिनट भी नहीं ले सकते। घर से निकलीये तो बंद, मोटर में बैठिए दौड़ कर और फिर जहां भी जाइए वहां से दौड़कर आप घर में घुस जाइये। कभी भी प्रच्छन्न इस कृति का मनोरम आस्वाद लेने की कोई सी भी व्यवस्था वहां नहीं है।
शायद इस वजह से एक मां की दृष्टि से मैं दोष प्रकृति को ही देना चाहती हूं, क्योंकि आख़िर कहीं भी हो मानव परमात्मा के पुत्र हैं। इस सोच की वजह से हो सकता है मनुष्य एक दूसरे से वहां बड़ा कटा हुआ है, और इसी वजह से वहां की प्रकृति में क्या दोष हैंं इसी की ओर मनुष्य की दृष्टि रहती है। इतना ही नहीं कि इस आक्रमक प्रकृति को किस तरह से आक्रमण से जीता जाए, यह प्रवृत्ति सहज में ही उनके बर्ताव मैं उनके विचार मे पूरी तरह से दिखाई देती है।
ना वहां कोई नदी में नहा सकता है। नदी इतनी ठंड होती है नदी में, कि गंगा जी से भी ज्यादा वहां ठंडक होती है। ओर उसके बाद अगर वहां से आप कहीं से नहा ही लिए गलती से, तो उसके बाद आपको ऐसी बीमारियां हो जाएंगी, जिससे कि आप जिंदगी भर के लिए जकड़ जाएंगे।
जब कोलंबस अमेरिका ढूंढने निकले थे, परमात्मा की असीम कृपा से, मेरे ख्याल से हनुमान जी ने कृपा की कि वो उधर अमेरिका चले गए और इधर नहीं आए। अगर यहां आ जाते तो ना हम रहते ना सहजयोग।
वहां सब को खत्म कर दिया इन लोगों ने, एक एक आदमी को चुन-चुन के मार डाला। और अब जब मैं वहां गई थी और अर्जेंटीना में, पेरू में, उससे भी ज्यादा न्यूयॉर्क आदि किसी भी देश में, मैने पूछा की भाई यहां के आदि लोग कहां हैं, आदिवासी? उन्होंने कहा बस अब न्यूज़ ही में हैं, बाकी के सारे तो खत्म कर डाले। वो ही हाल हम लोगों का होता सोचिए अगर कोलंबस महाराज यहां पहुंचते तो।
यह परमात्मा की असीम कृपा है, कि वो ज़मीन की खोज में वहां गए। लेकिन सत्य की खोज में लोग हिंदुस्तान आए, क्योंकि सत्य इसी संसार में, इसी पृथवी में अगर खोजना है, तो वो भारत वर्ष में छिपा हुआ है। लेकिन हम लोगों की दृष्टि बाहर है।
कल जैसे मैने आपको समझाया कि हमारी जो क्रियाशक्ति है, जब वो ऊर्ध्वगामी होती है, तभी वो जड़ों तक पहुंच सकती है। क्योंकि श्री कृष्ण ने खुद ही कहा हुआ है, कि हमारी जो चेतना की या हमारी जो कार्य पद्धति है, उससे बढ़ने वाली हमारी जो चेतना है, वो नीचे की तरफ अधोगति में जाती है, और ऊर्ध्वगति में जाने से ही हम अपनी जड़ों में पहुंच सकते हैं। और आपसे मैंने कल बताया कि वो जड़ें इसी देश में, इसी भारत वर्ष में हैं। और हम लोग इन अधोगति में जाने वाले लोगों के पीछे आंख बंद करके सीधे चले जा रहे हैं।
हमारे यहां भी मैं देखती हूं, वहां की मीडिया बहुत ही खराब है। वो कभी भगवान को समझ ही नहीं सकते और सहज योग तो उनकी खोपड़ी के ऊपर से चला जाएगा। आत्मसाक्षात्कार नाम की चीज वो समझ ही नहीं सकते। उनसे बात करना ही बेकार है। वो कहावत है ना, कि उल्टी गगरी पर पानी डालने से फायदा क्या। लेकिन आज यहां का भी हाल वही हो रहा है, कि यहां के भी हमारे लोग जो अखबार वाले हैं या और लोग हैं, जो कि चाहते हैं कि कुछ बात कहें, वो भी विदेशियों के ढंग से कहते हैं।
जैसे हर एक आदमी के ऊपर हावी रहो। हर एक आदमी को आप बुरा भला कहो। जो आदमी आपको पैसा दे दे उसके बारे में आप हज़ार बार लिखो। और जिस आदमी के पास पैसा नहीं उसके बारे में कुछ मत लिखो। अधिकतर, अधिकतर ये हो रहा है।
शुरु, शुरु मैं जब सहज योग हमने शुरू किया था, तो लोगों ने हमसे कहा की आप अगर वोलगा रेस्तरां में हमैं खाने को देगा और अगर रात का नाच हमें दिखाइएगा, तो हम आप पे दो कॉलम लिखेगे। हमने कहा मेहरबानी करके आप एक लाइन भी मत लिखिए, मेहरबानी करीए। और वही अखबार रात में हम लोग पढ़ते हैं। इन अखबारों में इस तरह की बातें लिखी जाती है, इसके पीछे वो मन है, वो विचारधारा है जो विदेशी है। उनकी विदेशी विचारधाराओं से–मुझे कोई लेना देना नहीं, लेकिन वो जो विदेशी विचारधाराएं हैं, उससे उनका क्या भला हुआ, यह तो कम से कम जाकर के देखना चाहिए।
एक आदमी अगर गड्ढे में जाकर के गिरा है, तो यह तो जाकर के देखना चाहिए की वो गड्ढे में है की ऊपर। ऊपर का जो कुछ भी तामझाम है उनका, उससे हम लोग इस तरह से अभिभूत हो जाते हैं। हम लोग उसी की तरफ अपनी नजर किए हुए हैं। और वहां आपको सत्य नहीं मिल सकता। सत्य इस देश में है और इसी देश में सत्य आपको मिलेगा, लेकिन आपका खोजने का तरीका आप को बदलना होगा। सत्य आपकी बुद्धि से जाना जाता है, ऐसा बहुत लोगों का विचार है, लेकिन बुद्धि बहुत सीमित है।
वो सत्य को जान नहीं सकती। जब बुद्धि को मनुष्य किसी तरह से भगाता है, अपने विचारों को बढ़ाता है, जिसे हम कहें की मेंटल प्रोजेक्शन करता है, अपने मस्तिष्क को इस तरह से दौडाता है, तो वो अपनी ही एक चीज बना करके और संसार के सामने एक कोई बड़ा भारी प्रमाण कि तरह से, आईडियोलॉजी की तरह से सामने रख देता है।
आप शायद इतना सफर ना करें जितना मैंने किया था। मैं रशिया गई हूं, चाइना गई हूं, अमेरिका गयी हूं, हर दुनिया की आईडियोलॉजी को मैंने देखा, मिलान गई हूं। कोई दुनिया का देश नहीं होगा जो मैंने देखा नहीं। और मैंने एक ही बात पायी कि हर जगह आदमी मस्तिष्क से कोई चीज निकालकर के खड़ा कर देता है।
और यही सबसे बड़ी चीज है ऐसा समझ कर के उसके पीछे लग जाता है, और फिर वही भूत बनकर के उसे खा लेता है।
तो सत्य को जानने की इच्छा उसी को हो सकती है जो इसका शिकार हो चुका है, जिसने उस अधोगति की सड़न को, उसकी कुछलाहट को बर्दाश्त किया है। जिसकी आत्मा उसमें कुमलाही है। वो ही इसको महसूस करता है। हम लोग उसे इसलिए महसूस नहीं कर सकते क्योंकि हम लोग तो हर समय वही सोचते हैं जो वो करें। जिस रास्ते से गुजर के वो गिरें उस रास्ते की कोई संकरी गली भी होनी चाहिए जिसको हमें अपनाना चाहिए।
सत्य को जानने
सत्य को जानने के लिए यह बुद्धि पर्याप्त नहीं है, यह पर्याप्त नहीं है। इसीलिए पहली बात अपनी बुद्धि से यह जान लेना चाहिए की अनादि काल से हमारे देश में जो बड़े-बड़े संत साधु हो गए, जो बड़े-बड़े अवतरण हो गए उन्होंने जो जो बातें कह दी वो क्या सब झूठे थे? उन्होंने क्या सब गलत बात कही? उन्होंने हर जगह कहा की आप अपने आत्म साक्षात्कार को प्राप्त हों। तो क्या वो लोग गलत थे?
हां यह हम मानते हैं की बहुत से लोग चोर होते हैं, अब चोर तो अपने देश में इतने चोर हो गए की मेरी समझ नहीं आता है की चोर कौन है और सिपाही कौन है।
जो जो ऐसे ऐसे साधु यहां हो गए उनके बारे में अपने अखबारों में इतना ज्यादा लिखा गया था कि लोग अभिभूत हो गए। उसके बाद बाहर जाकर के वो लोग शहंशाह बन करके घूम रहे थे और उन्होंने rolls-royces खरीदी, यह खरीदा वो करा और इस चीज़ से सब दुनिया अभिभूत थी, कि वाह साहब कैसे इन्होने अच्छा इन को बुद्धू बना कर रखा हुआ है। लेकिन सत्य जो है ये हमारे अंदर निहीत है। सत्य को हमें अपने मज्जा तंतु पे जानना है, अपने Central nervous system पे जानना है।
जैसे यह चीज़ ठंडी है या गरम है, ये जिस तरह से हम जानते हैं उस ही तरह से हमें सत्य को अपने Central nervous system पे जानना है, माने हमसे हम कहते हैं की येह विद होना चाहिए, इसका बोध होना चाहिए।
बोध का मतलब यह नहीं की हमने किताब जाकर के पड़ी। संत तुकाराम ने कितनी किताबें पढ़ी? ज्ञानेश्वर जी वो तो इतनी छोटी उम्र में ही समाधि प्राप्त कर गए। हमारे यहां कौन से साधु संतों ने यूनिवर्सिटी की डिग्री ली थी? और जो डिग्री लेते हैं उनमें से कितने साधु-संत हुए? वो यही डिग्री ले कर आते हैं कि कैसे लोगों को बेवकूफ बनाया जाए। जब वो कोई डिग्री वाला साधु संत हो गया तो समझ लो सब की हालत खराब हो जाएगी।
सो समझना यह चाहिए की सत्य को जान ने के लिए पहले हमें नम्रता में उतरना चाहिए। अभी तक हमने सत्य को नहीं जाना है।
हमने जो अभी तक जाना है वो दूसरों की लिखी हुई बातें, दूसरों की पढी हुई बातें, जो चार लोगों ने बता दिया, वो जानते हैं। इसने ये कहा, उसने वो कहा, उसने यह बताया, लेकिन हमने अपने Central nervous system पे कुछ नहीं जाना। हमारी जो मज्जा संस्था है, उस पर हमने कुछ नहीं जाना, उसका हमें अनुभव नहीं आया। इस नम्रता पर हम आएं की हम जिस सत्य को जानते हैं, वो सत्य बड़ा अधूरा है। सत्य में जो आप साइंस में जानते हैं, वो वहां है इसलिए आप जानते हैं, नहीं तो आप क्या जानिएगा?
कारबन में चार वेलेंसीज़ होती है। यह आप देखते हैं इसी लिये आप कहते हैं वहां हैं। इसमें कौन सी बड़ी भारी बात हो गई? जो है वही ना आप बता रहे हैं। लेकिन जो नहीं जानते हैं, जिसके बारे में आप अनजान हैं, उसकी ओर अगर आपको दृष्टि करनी है तो नम्रता पूर्वक आपको जानना चाहिए की अभी बहुत कुछ जानने का है। और जानना शब्द भी जो है वो ‘ग्य’ से आया है, जिसका मतलब है
हमारे मज्जा संस्था में उसकी प्रचिति होनी चाहिए। उसको मराठी में ‘ज़ाणी’ शब्द है। इस बात को आप समझ लीजिए की अपने बुद्धि के जो आप हतकंडे घुमा रहे है या उसी से जो कुछ डोरें निकाल निकाल कर के सारी दुनिया को नचा रहे हैं, उसमें आप भी नाच जाइएगा। आपके बच्चे भी नाच जाइएगा और सारी दुनिया नाचती ही रहेगी और कुछ फ़ायदा नहीं होगा।
सत्य को जानना चाहिए। यह आप नम्रता पूर्वक पहले अपने अंदर सिद्ध करीए। आप कुछ भी हों, जब तक आप आत्मसाक्षात्कारी नहीं हैं तब तक हमारी नज़र में आप अंजान हैं। आत्मा का जब तक आपके अंदर प्रकाश नहीं है, तब तक आपके पास वो अंतर् दृष्टि आइ नहीं जिस से आप हमारे रंग को या कबीर के लाल रंग को समझ नहीं पाएंगे।
‘मेरे लाल की लाली जित देखु तित लाल। मैं गई देखन लाली हो गई लाल। मैं ही हो गई लाल।’ कौन सा लाल रंग था वो जिस की बात कर रहे थे? ‘ऐसे रंग रंगो रंगरेज़ो लाल लाल कर दिनी।’ वो लाल किसी को दिखाई देता है क्या? और कबीर दास जी को जो हमने सदुक्ररी भाषा और आदि कह के उनको इतना नीचा गिरा दिया। और उनके इतने गहन तत्व को हमने इस तरह से निचोड़ कर के उसको खत्म कर दिया;
कि वो एक दलित वर्ग के कवि थे। और मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि लंदन में रवि दास जी का और कबीर दास का उन्होने वहां मंदिर बनाया। इस जगह इतनी बड़ी विभूति हो गई और हमने उसे जाना नहीं।
और बैठे बैठे बुद्धि से हम यह निकाल रहे हैं, कि जो दर्ज़ी बन कर के नामदेव थे, क्या वो ही नामदेव गुरु नानक से मिले थे? या यह निकाल रहे हैं, कि इनहोने विवेक चूड़ामणि नाम की इतनी सुंदर, तत्व वेत्ता पूर्ण, जिसे कहना चाहिए, पुस्तक लिखी। ऐसे महान–यह तो बुद्धि वादियों को ये ही यही महान लगता है जिस में वो चकर घिन्नी घुमाए।
और उन्होंने इतनी ऐसी बात कैसे लिख दी जो सौंदर्य लहरी में है, कि मां की तुम स्तुति करो बस और कुछ करो नहीं। तो यह दो आदमी हो सकते हैं एक आदमी नहीं हो सकता। यह हमारे अकलमंद जो लोग हैं उन लोगों ने यह बातें लाकर रख दी कि सत्य को कैसे खोज सकते हैं।
यह अहंकार का अन्वेषण है। अहंकार कि ये झलक ही नहीं बल्कि पूरी तरह से आक्रमण है अपने समाज पर जहां पर कि एक अहंकारी अपने दिमाग में कोई बात सोच लेता है और क्योंकि उसको लिखना पढ़ना आता है या वह बड़ा भारी प्रोफेसर है या टीचर है या बोल सकता है, भाषण दे सकता है लोगो पे छाप डाल देता है।
या ऐसे बहुत सारे तत्व वेत्ता है। एक हमने परसो सुने कि वो जाकर के मारवाडी लोगों में जा कर के बहुत ज़्यादा रुपया कमाएंगे। तत्व वेत्ता और वो गरीब लोगों से बताती हैं देखो भाई गरीबी ठीक है, कोई हरजा नहीं। येह तो पूर्व जन्म के कर्म से तुम पा रहे हो। पर आप किस जन्म के करम से यह करम कर रहे हैं? और आपका अगला जन्म क्या होगा? तो बुद्धि के तत्वों में सबसे बड़ी जो चीज, जो महत्वपूर्ण है, धनी बात है वह एक ही है, कि हमारे अंदर धर्म जागृत होना चाहिए।
सत्य को प्राप्त
जब धर्म जागृत होता है तब ही हम सत्य को जानते हैं। अब धर्म का मतलब हम लोग यह समझते हैं हिंदू धर्म, क्रिश्चियन धर्म, फलाना धर्म, ये, वो। यह धर्म है ही नहीं। कैसे हो सकते हैं बताइए आप? जब आप हिंदू धर्म की व्याख्या करते हैंः हिंदू धर्म में तो कहा है कि सबके अंदर एक ही आत्मा का वास है, फिर आपने जातीयता कैसे बनाई?
जब आप के धर्म में व्यास और वाल्ममिकी जैसे लोग ब्रह्म ऋषि कहलाए जाते हैं, फिर आपने जातीयता बनाई ही कैसे कि जन्म से ही धर्म को प्राप्त होता है? ब्रह्म को जानने वाला ही जब ब्राह्मण होता है तो आपने जातीयता बनाई कैसे? आज जातीयता के नाम से लोग चिल्ला रहे हैं। इसको निकालने का तरीका बुद्धि से नहीं हो सकता। इसके लिए सत्य को प्राप्त होना पड़ेगा। जब तक आप सत्य को प्राप्त नहीं होंगे तब तक आपके अंदर की जातीयता जा नहीं सकती।
सत्य को प्राप्त होने के लिए दूसरी बात है कि धर्म में खड़ा होना पड़ता है। धर्म में खड़ा होना क्या होता है? इसके लिए समझने की बात है। दो उदाहरण हम देंगे, एक श्री कृष्ण का। श्रीकृष्ण को लोग सोचते हैं कि उन्होंने अहिंसा सिखाई है। हां सिखाई तो है अहिंसा वो गरीबों के लिए, ऐसे लोगों के लिए जो त्रस्त हैं। लेकिन जो दुष्ट हैं उनके लिए अहिंसा नहीं सिखाई, उनके लिए हिंसा सिखाई है।
जिस वक्त करण का पैर रथ के चक्के में फस गया था और उनके ऊपर अर्जुन ने अपना गांडीव पकड़ा था। तो करण उनसे कहा कि, “देख तू भी वीर है, मैं भी वीर हूं और मुझे क्षत करने का तुझे अधिकार नहीं जब की मैं सशस्त्र नहीं हूं।”
तब कृष्ण ने अपनी उंगली आगे करके कहा की, “जिस वक्त द्रोपदी की लाज लूटी जा रही थी, तब तेरी वीरता कहां गई थी?” ‘मार!’
कृष्ण को लेकर के जो अहिंसा की बात करते हैं, वो विस्मय का भेद नहीं जानते।
कहा जाता है:
हंस: श्वेतो बक: श्वेतो को भेदो बकहंसयो: |
नीरक्षीरविवेके तु हंस: हंसो बको बक: ||
उसका विवेक जब तक आपके अंदर आएगा नहीं, तब तक आप समझ नहीं सकते धर्म क्या है। जिस वक़्त इसा मसीह जो की साक्षात् अत्यंत नित्य, ओंकार स्वरूप, अवतरण थे एक वैश्या को देखते हैं, की उसको पत्थरों से मारा जा रहा है। उनका किसी वैश्या से क्या मतलब हो सकता है? वो जाकर के खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, “तुम में से जिस ने कुछ भी पाप नहीं किया हो वो मुझे पत्थर मारे।” “मुझे, मुझे पत्थर मारे,” और सब ने अपने पत्थर डाल दिए। क्यू की वो जो अधिकार सत्य का उनके अंदर था, उसके आगे चलना कठिन बात है।
समझने की कोशिश करिए, आज हमारे देश में व्यक्तित्व नहीं है, चरित्र नहीं है, हम लोग रो रहे हैं। चरित्रहीन, दुर्बल, निर्बल, एक तरह से गुलामी लिए हुए इस पैसे के पीछे चाहे जो करने के लिए हम तैयार हो रहे हैं। उस की वजह ये है की अभी हम ने ये जाना नहीं धर्म क्या है। जब आपके पास पैसा नहीं है, ठीक है, इस लिए गरीबो का पैसा लूटने की ज़रूरत, और आप अगर ही को–जैसे की मैने कल भी कहा आप से कि शराब पीते हैं, तंबाकू खाते हैं, सिग्रेट पे सिग्रेट पीते हैं, और यहां पर जाके strike करते हैं की हमें हमारा पैसा दिजीए, किस लिए? शराब ज़्यादा पीने के लिए?
धर्म में आने का मतलब ये होता है, की एक सतुलन में रहना, एक मध्य भाग में रेहना , जिस को की moderation कहना चाहिए। जैसे इंसान हर एक चीज़ में अती पर चला जाता है, उस अती से छूट कर बीचों बीच आना ये धर्म है।
अनेक धर्म बताए गए हैं। ये हमारे अंदर जो सद्गुरू हो गए उन्होंने बनाया है। स्त्री धर्म, स्त्री धर्म दो तरह के मैने ही अपने देश में देखे हैं। या तो आदमीयों के जूते खाइए और या तो आदमियों को जूते मारीए। बीच में कोइ चीज़ दिखाई नहीं देती। या तो सिता जी को एक धोभी घर से निकाल देता है और या तो कोइ ऐसी औरत या तो कोइ आकर के सारे लोगों की नाक कटा देती है।
पति धर्म, पत्नी धर्म, मातृ धर्म, पित्र धर्म। ये सारे रिश्तेदारी के धर्म हैं। राष्ट्र धर्म, विश्व धर्म। यह सब से हम परिचित हैं, अपरिचित हम नहीं, लेकिन हम अन्होनी कर जाते हैं। ऐसी बात कर दें जो बिल्कुल अनहोनी है, की हम उस धर्म को जानते हुए भी वो नहीं करते। इसलिए मैं ये कहूंगी कि ये जो हमारे पर्देस के लोग हैं,
ये उसे जानते नहीं, वो इस बात को जानते नहीं हैं, और इसीलिए वो गलत काम करते है, तो ठीक है अज्ञान में। हम ज्ञानी होते हुए भी, इस बारे में जानते हुए भी हम धर्म में खड़े नहीं हो सकते। इसलिए हमारी धर्म शक्ति बड़ी कमजोर है। और जो आदमी धर्म में खड़ा होता है, वो सबसे शक्तिशाली मनुष्य होता है।
पैसे से आपके अंदर बिल्कुल भी शक्ति नहीं आ सकती। मैंने ऐसे ऐसे पैसे वाले देखे हैं जो लड़खड़ाते हुए खड़े रहते हैं। इसका पैसा दिया, उसका पैसा नहीं दिया, इनकम टैक्स वाले आने वाले हैं, ऐसा होने वाला है, वैसा होने वाला है। मेरा लड़का पैसा लेके भाग गया, मेरी बीवी भाग गयी, फ़लाना हो गया, ढिम्काना हो गया। सत्ता से तो बिल्कुल नहीं आ सकती। सत्ता से आदमी तो इतना निर्बल हो जाता है, क्योंकि दूसरों के हाथ में पड़ गया। दूसरे जब तक उसे सत्ता नहीं देंगे वो लड़खड़ाता खड़ा रहता है, ‘भैया मेरे को वोट दो, वोट दो, मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं, जूते तुम्हारे उठा लूंगा।’
किसी भी चीज से मनुष्य समर्थ नहीं हो सकता सिवाय आत्मा के। आत्मा ही आपको समर्थ कर सकता है।
लेकिन सबसे पहले उस में आपके अंदर धर्म स्थापना होनी चाहिए। और धर्म की स्थापना के लिए मंदिर, मस्जिद और चर्च बनाने से होगा क्या? अपने मंदिरों का हाल सुनिए तो भगवान बचाए रक्खे और चर्च का हाल मुझ से पूछिए आप। और मस्जिदो का हाल उन से पूछिए जो मस्जिद में बैठ कर के गलत गलत सलह करते हैं मंदिरों में बैठकर के बंदूके चलाते हैं।
यह लोग धर्म को जानने वाले नहीं है, अधर्मी हैं, धर्म के नाम पर महा अधर्म कर रहे हैं और आज हम ही इस बात को कह सकते हैं दूसरों में हिम्मत नहीं कि वो इस बात को कह सके कि यह धर्म नहीं। धर्म मानवता का धर्म है। उस में ये नहीं कि आप जा कर के चार लोगों को बटोर के लाइए और मिशनरीज से उनके खाने पीने को देखिए और अपने लिए बड़े-बड़े नोबेल प्राइजेस। यह धर्म नहीं है।
धर्म वो है जहां मनुष्य अपने जीवन का संतुलन में होता है, उस में पूरा संतुलन हो जाता है। जहां वो प्रेम के धर्म में बसा हुआ रहता है। वो सहज में ही सारा कार्य करता है। कोई सी भी उसके अंदर से अगर ऐसी क्रिया घटित हो जाए जो बहुत ही अभिनव हो, उसके प्रति कोई भी उसे गर्व नहीं हो, ऐसा ही आदमी हम कहेंगे कि धर्म में होता है। पर आप कहीएगा, मां, ऐसे आदमी आएंगे कहां से? वो बात ठीक है, ऐसे धर्म के आदमी कहां से आएंगे?
जैसा मैंने कल कहा कि मर्क्स ने कहा कि, ऐसे लोग होने चाहिए कि जो यहां स्टेट्लेस हों जाए, स्टेट ना रहे। ऐसे लोग होना चाहिए कि जो आपस में इतने प्रेम से रहें कि झगड़ा ना हो। सबसे ज्यादा डिवोर्स तो वही होते हैं जहां मार्क्सवाद चल रहा है। तो क्या गलती हो गई वहां पर? जो कि इन्होंने कहा था कि हम ऐसी स्टेट बनाएंगे, वो नहीं बना पाए।
इसकी वजह ये कि वहां धर्म नहीं है। और धर्म हमारे अंदर स्थापित करना बहुत ही आसान है। जब कुंडलिनी का जागरण होता है तो हमारे नाभि चक्र में जब कुंडलिनी आती है तो उसके प्रकाश से हमारे अंदर आपो आप धर्म जागृत हो जाता है। अधर्मी से अधर्मी मनुष्य भी धर्म में उतर जाता है। पर जो मनुष्य अंदर से धार्मिक है उसके लिए कुंडलिनी का जागरण बहुत ही, बहुत ही आसान है।
अब बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं के जो धर्म के नाम मैं अनेक गलतियां कर जाते हैं। वो सीधे साधे भोले भाले लोग होते हैं। जैसे वो भी बता रहे थे हम ने ऐसे बहुत सारे लोग देखें, विलायत में भी देखे है और यहां भी देखे हैं जो कि गुरुओं के चक्कर मैं घूम गए।
जो कि पैसा देते हैं और उनके चरण छूते हैं और उन से सोचते हैं कि भाई हमारा गुरु जाएगा स्वर्ग में तो हमें भी साथ ले जाएगा। लेकिन वह तो नर्क जा रहे हैं, उनके साथ सभी नरक में जाने वाले हैं। उसके लिए पैसा देकर के आप नर्क मैं जा रहे हैं।
एक बात आपको जान लेना चाहिए कि, कोई सा भी गुरु जो रुपया, पैसा मांगता है वो सतगुरु नहीं हो सकता। आप परमात्मा को खरीद नहीं सकते। आप कुंडलिनी को पैसा दिखाकर जागृत नहीं कर सकते। वो वही चीज है जो मनुष्य कर सकता है, कि वो पैसे से लुभा सकता है लोगों को। लेकिन कुंडलिनी एक जीवंत शक्ति है। शुद्ध इच्छा है। और कोई भी शुद्ध मनुष्य पैसे से जीता नहीं जा सकता है, ना खरीदा जा सकता। इसलिए जान लीजिए कि कोई भी आदमी आपसे कहे कि आपके कुंडलिनी जागरण का इतना पैसा दो या आपके आत्म साक्षात्कार का इतना पैसा दो, तो उस पे विश्वास नहीं करना चाहिए।
लेकिन फिर यह प्रश्न किया जाता है कि यह धर्म शक्ति क्यों बढ़ाई जाए? और धर्म में शक्ति रहने से क्या फायदा होता है? जो बिल्कुल पर्याप्त है, सही बात है। कि अगर आप धर्म पर बात कर रहे है, संतुलन की बात कर रहे हैं, और अति में नहीं जाना चाहिए अगर इसकी बात कर रहे हैं, तो आखिर क्यों? जब आप कोई प्लेन को देखते हैं तो, जो आकाश में उड़ता है, उसकी उड़ान से पहले देखा जाता है कि वो संतुलित है या नहीं है, उसके सब पेच कसे हुए हैं या नहीं है, और सब पूरी तरह से जुड़ा हुआ है या नहीं है।
उसी प्रकार धर्म से मनुष्य में वो शक्ति आती है जिस से कि वो उडान कर सकता है। उसकी उडान बहुत आसान और बिल्कुल सिधी पहुंचती है अपने लक्ष्य की ओर जब वो धर्म में खड़ा होता है। बाहर के धर्मों की में बिल्कुल नहीं बात कर रही हूं। अंदर के अपने धर्म होते हैं।
जैसे कार्बन की वैलेंसीज चार हैं ये उसके धर्म हैं। कार्बन का धर्म है कि उसकी चार वैलेंसीज हैं। और उसी प्रकार हमारी दस वैलेंसी है।
हमारे दस धर्म है। उन दस धर्मो को हमें संभालना चाहिए। और जब तक हम उन दस धर्मों में संतुलित नहीं होते हैं, तब तक हमारी उडान नहीं हो सकती।
पर आज का सहयोग और तरह का है; इसमें पहले तो यह होता था कि चक्रों की सफाई की जाए, हर एक चीज को धर्म में बिठाया जाए; जबरदस्ती शिष्यों को काफी उनकी परीक्षा लेकर के और उनसे बताया जाता था कि ऐसा करो कि पहले तो अपने को धर्म में उतारो फिर यमन यमन में आओ यह करो; अष्टांग योग होते थे। लेकिन हमने यह विचारा कि यह बड़ी कठिन बात है ।
आजकल की कशमकश की जिंदगी में बड़ा मुश्किल है इंसान के लिए की बैठ करके पहले अपने चक्रों को साफ करें और ध्यान करके बैठ रहे घंटों या जंगलों में घूमता फिरता रहे; और उसकी जरूरत मैं तो महसूस नहीं करती । पर एक कार्य करना था और वह यह कि इस ध्यान को पहले बना लो; किसी तरह से टिमटिमाता क्यों ना हो की, आत्मा का दिया किसी तरह से उनके चित्त में भर दो ।
जब आपको एक कैंडल जलाना होता है तो आप क्या करते हैं आप उसे कैंडल को साफ कर लेते हैं और फिर उसे जलाते हैं ; फिर देखते हैं कि गंदा ही है अभी फिर उसे निकालते हैं फिर से साफ करते हैं, फिर जब देखते हैं उसको लाइट में तो गंदा लगता है। लेकिन हमने यह सोचा कि अगर पहले ही दीप जला दे तो देखते ही साथ आप यह समझ जाएंगे कि हमारे कैंडल में ही तो यह खराबी है; उसकी जानकारी होते ही आप स्वयं ही उसे स्वच्छ कर लेंगे । आप ही अपने गुरु हो जाएंगे और फिर गुरु का चक्कर खत्म हो जाएगा; और यही आज का सहयोग है ।
अत्यंत सूक्ष्म जैसी मध्य मार्ग में जो हमारी सुषमणा नाड़ी है,उसके अंदर एक ब्रह्म नाड़ी है वो साढे तीन लपेटे में जैसे कि एक कागज को आप लपेट लिजिए जैसे ऐसे मध्य नाड़ी है, और उसके जो बीच का हिस्सा है बहुत सूक्ष्म है, उसके अंदर से कुंडलिनी एक बिल्कुल छोटे से बाल की तरह उठकर के ओर छेद देती है ब्रह्मरंध्र को। उसके बाद ऊपर से परमात्मा की जब करुणा बहने लगती है, तब और उसके साथ में बहुत सारे ऐसे ही केश के जैसे, बिजली की तरह तार जैसे तार उठते हुए,
कुंडलिनी छः चक्रों में भेदती हुई ऊपर तक चली जाती है। जो आदमी संतुलन में रहता है, जिसने हमेशा धर्म का पालन किया है, जो धर्म में रहता है, अपने गौरव से रहता है, ऐसे आदमी की कुंडलिनी–खट से–पूरे के पूरे ब्रह्मरंध्र को छेद कर के ऊपर चली जाती है। ऐसे हमारे यहां कुछ लोग हैं, लेकिन वो देहातों में रहते हैं, शहरों में नहीं। शहरों में तो पहली जैसी वो दशा है, अहंकार रूप ही बहुत सुन्दर सा जान पड्ता है, और उस अहंकार में डूबे हुए; हम कठनाई से पाते हैं।
अभी थोड़े दिन की बात है, हम देहातों में ज़्यादा घूमते हैं आप जानते हैं। चार-पांच वीक हुए होंगे, एक गाँव है अस्त गाँव, जो की बहुत ही, बहुत ही छोटा गांव है। और उस गांव में बहुत दूर-दूर से लोग अपनी बैल गाड़ी में पैदल आए, हज़ारों कि तादात में, हज़ारों कि तादात में। और कुछ नहीं मैंने कहा ऐसे हाथ करो, और थोड़ा सा संतुलन दिया, ‘बताओ कितनों के हाथों में ठंडक आ रही है?’
सब के सब ने हाथ उठा दिए और सब ने बता दिया कि हम पार हो गए। और बस खुश हो गए, उनकी शक्लें ही बदल गई। और आप कहते हैं कि मां आप तो देहाती लोगों को ज्यादा पसंद करती हैं और जो मराठी में कहते हैं (‘ये काए गानगले गानगले’?/ ऐसा सुनाइ दे रहा है) उन ही को आप देखती है, और जो धडधाकट है उनको नहीं जानती। मैंने कहा भाई धडधाकट कोई परमात्मा की ओर तो आएं।
जो शहरों में रहने वाले लोग हैं, उन पे जो मैंने कल आपको बात बताई थी, कि वो अधोगति की ओर जा रहे हैं, चित् उनका हमेशा गलत ही चीजों की तरफ़ जाता है, जहां नहीं जाना चाहिए, वहीं जाता है। उसकी वजह यह है, कि हमने अपना जो मार्ग लिया हुआ है वो उल्टा है। इसको उलटना चाहिए, इसको ऊपर की ओर लाना चाहिए। उर्ध्व गति में जाना चाहिए। सो कैसे? पूरी सिस्टम बदलना चाहिए मैंने कल आपसे कहा।
जब तक यह पूरी सिस्टम नहीं बदलेगी तब तक हम लोग ठीक नहीं हो सकते, और यह बदलना हम लोगों का कार्य है, कि जब हम लोग योगी जन हो जाएंगे तो अपने आप सिस्टम बदल जाएंगे, ये सिस्टम भी तो इंसान ने ही बनाई है, दूसरा सिस्टम भी यही योगी जन बनाएंगे, जहां हम उर्ध्व गति को प्राप्त हों। इस उर्ध्व गति को प्राप्त होने से आप सत्य को जानेंगे।
अब सत्य क्या है? सत्य एक छोटी, एक छोटी सी व्याख्या में कहा जा सकता है, कि सत्य येह है कि आप आत्मा हैं। आप अहंकार, मनोचार, शरीर आदि कुछ भी नहीं, आप स्वयं आत्मा हैं, यह परम सत्य है। और इसको जानने के लिए आपको आत्मा होना पड़ेगा। जब तक आप आत्मा नहीं हुए, तब तक आपके लिए वो हर चीज जो बेकार है वो ही आप हैं।
आपका मकान है, आपका येह है, जब तक आप यह कहते हैं कि यह सब मेरा ह, तब तक आप वो नहीं हैं। जब तक आप कहते हैं कि ये मेरी मोटर है, माने आप मोटर नहीं हैं। लेकिन जब आत्मा आप हो जाते हैं, तो आप कहते हैं, कि माँ मैं आत्मा हूं, मैं आत्मा हूं, ये सत्य है।
लेकिन जैसे ही सत्य हमारे अंदर प्रगटित होता है, तब हमारे चित्त में क्या परिवर्तन हो जाता है। सबसे पहले तो इस आत्मा के प्रगटिकरण से जो लोग बुद्धि वादी होते हैं उनकी बुद्धि में प्रकाश आता है और जो लोग हृदयवादी होते हैं उनके हृदय आनंद से डोलने लग जाते हैं।
इसके बारे में मैं कल बताऊंगी, लेकिन आज बुद्धि वादियों की बात मैं बताती हूं, कि जो बुद्धि वादी होते हैं उनकी बुद्धि में एक प्रकाश आ जाता है और वो देखते हैं कि यहां बैठे बैठे हम महसूस कर रहे हैं, इन उंगलियों के अव्रोह में कि इस आदमी में क्या शिकायत है और हम में क्या शिकायत है। हम किस तरह से इस चीज को महसूस कर रहे हैं? एक बार जब शुरू में इंग्लैंड में हमने काम किया, आप आश्चर्य करेंगे, चार साल तक हम सात आदमीयों की खोपड़ी ठीक करते रहे, परेशान हो गयी तबीयत।
मैंने कहा इससे अच्छा उस हिंदुस्तान में काम करें, लेकिन क्या करें हमारे पति की वहां नौकरी है, तो मैने कहा चलो इन पर कुछ हाथ चला सकें तो, सात साल तक मार, परेशान हो गए। चार साल तक हमने सात आदमियों पे मेहनत करी।
लेकिन उस वक़्त एक साहब जब वो पार हुए तो उन्होंने कहा कि आप कहते–उनको तो विश्वास नहीं होता ना कि यहां बैठे बैठे आप सामूहिक चेतना में जागृत हो जाते हैं और यह सामूहिक चेतना आपके नसों पे प्रदर्शन देती है, उसकी प्रचीति देती है। तो किस तरह? तो मैंने कहा अच्छा तुम कोई सवाल पूछो। कहने लगे कि अच्छा मेरे पिता की चिट्ठी नहीं आई बहुत दिन से और उनसे फोन नहीं आया, मैं जानना चाहती हूं कि मेरे पिता कैसे हैं।
अच्छा ऐसे हाथ करके और तुम ध्यान करो अपने पिता का। एकदम से उनकी उंगली यहां पर बहुत बुरी तरह से जलने लग गयी। उन्होंने कहा मां इसका क्या अर्थ हुआ? मैंने कहा देखो बेटे यह सब आपके पिता के चक्र है और यह जो है, विशुद्धि चक्र है। तो अंग्रेजी में मैंने कहा, “He must be down with very bad bronchitis।”
और जब मैने ऐसे कहा, उसने कहा सच बात? मैंने कहा हाँ, तुम फोन करो। उंहोने फोन किया तो उनकी मां फ़ोन पर आई, और उंहोने यही, यही वाक्य कहा “Your father is down with very bad bronchitis।” उसके बाद उंहोने कहा अच्छा अब क्या करें? मैने कहा, अच्छा मैं तुमहे बताती हूं इसको किस तरह से ठीक करना है। और जब वो किया तो एक घंटे बाद उनकी मां का फोन आया तो उन्होंने कहा, कि पता नहीं क्या चमत्कार हुआ तुम्हारे फ़ादर एक दम आधे घंटे बाद उठकर के खड़े हो गए। यह चित् का कमाल है,
जिसे चित् कहते हैं, ये असली चित् है, जिस में सत्य का प्रकाश आ जाता है। यहां बैठे-बैठे आप यह सब कार्य कर सकते हैं। आज तक मनुष्य ने कोई सा भी जीवंत कार्य नहीं किया, सब मरा हुआ कार्य वो कर रहे हैं, मैने कल ही बताया मैने आप से। जीवंत कार्य सिर्फ़ आत्मा के प्रकाश से हो सकता है, जबकी हाथों कि उंगलियों के सहारे कुंडलिनी उठ्ती है।
आज आपने डॉक्टर वर्रेन को सुना है, इनकी जो बातें हैं, जो भी कहा वो बहुत गहरे आदमी हैं। इन्होंने कम से कम कुछ नहीं तो चार-पांच हजार ऑस्ट्रेलिया के लोगों को आत्मदर्शन दिया है। और इन्होंने कुल वहां बाराह शहरों में सेन्ट्र खोले हैं। सिर्फ़ सिड्नी में ही सात सेन्ट्रज़।
इतना इन्होने कार्य किया है। और ये आदमी बिल्कुल गई बिती हालत में यहां आए थे, बहुत बिमार। इत्नी समर्थता इस आत्मा ने दे दी, ये ही समर्थ है, ये ही कहा जाता है मरठी में ‘समर्थाचीआ वक्र्पाहे असा सर्वमोहमंडल कोण आहे’।
हमारे शिवाजी महाराज भी आत्म साक्षात्कारी थे। देखिए उनका जीवन कितना शुद्ध था। अगर आप तुकाराम, या ज्ञानेश्वर जी, नामदेव जी, गोर्हा कुम्हार किसी का भी जिवन देखें तो आप कहेंगे कि ये मां इतने शुद्ध कैसे थे?
क्योंकि आत्म साक्षात्कारी थे। आत्म साक्षात्कारी मनुष्य शुद्ध रहता है, अपने में समर्थ रहता है और किसी तरह से आशंकित नहीं रहता है, हर समय जानता है कि उसकी रक्षा परमात्मा करने वाले हैं।
आपको परमात्मा के साम्राज्य में आना चाहिए, आजकल के जमाने में ये बातें करना लोग सोचते हैं कि ये मेरी बेवकूफ़ी है, क्योंकि जो लोग बेवकूफ होते हैं वह दूसरे को इस तरह से समझते भी हैं। लेकिन बात सही यह है कि जो हजारों वर्षों से अपने देश में कहा गया है कि आत्म साक्षात्कार को प्राप्त करीए वो बात बिल्कुल सही है, और वही बात आज मैं दोहरा रही हूं।
इन लोगों की बातों में आकर के इन लोगों के झासे में आकर के आप लोग दूसरी बेवकूफ़ी कर रहे हैं। पहले इनके झांसे में आकर के देश को बेच डाला और अब इनके झांसे में आकर के अपनी जो पुरानी पुरातन जो सबसे बड़ी चीज है, मुल्यवान चीज़ है उसे भी खो देंगे।
कुंडलिनी का जागरण
कुंडलिनी का जागरण करना कोई आज की बात नहीं है, मार्कन्डेय जी, कहते हैं कि 14000 वर्ष पहले उन्होने कुंडलिनी का जागरण किया था। जनक राजा ने नचिकेता कि कुंडलिनी का जागरण किया था। उस वक्त एक ही 2 लोगों का जागरण होता था क्योंकि (कुंडलिनी?) के एक वृक्ष पर एक ही दो फूल लगते थे। पर आज मैं कहती हूं कि मौसम बहार का है, हजारों फूल तैयार हैं, जिस के लिए नल-दमयंती व्याख्यान में लिखा हुआ है कि कलयुग में ही ऐसा समय आएगा जहां पर की हजारों लोग, एक सर्वसामान्य घर गृहस्ती में रहने वाले आत्म साक्षात्कार को प्राप्त होंगे।
नाडी ग्रंथ नाम का एक ग्रंथ है, जो भ्रिगु मुनि ने नजाने कितने हजार वर्षों पहले लिखा था, उसमें स्पष्टता लिखा हुआ है कि किस तरह का समय आ रहा है, जब लोगों की सहज में कुंडलिनी जागृत हो जाएगी।
लेकिन कुंडलिनी की बात हजारों वर्षों तक लोगों ने गुप्त रखी और कहीं नहीं। ज्ञानेश्वर जी ने अपनी ज्ञानेश्वरी में छठे अध्याय में जब कि उन्होंने गीता पे टीका लिखी उनसे रहा नहीं गया, उन्होंने उस पे कुंडलिनी का वर्णन कर दिया। लेकिन बाद में सबको बताया गया कि वो छटा अध्याय पढ़ा ना जाए क्योंकि इनका पेट जो मारा जाएगा। जो परमात्मा के नाम पर पैसा कमा रहे हैं उनका पेट मारा जाएगा, तो उंहोने कहा कि आप छटा अध्याय मत पढ़िए।
छठा अध्याय पढ़ने से लोग जान लेते की ज्ञानेश्वर जी ने टिन्डी करने के लिए नहीं कहा है, कभी नहीं कहा था कि आप तंबाकू चढ़ाकर के विट्ठल विट्ठल करके अपनी तंदुरुस्ती चोपटाएं। उंहोने कहा था कि ध्यान करके परमात्मा को प्राप्त हों।
भक्ति का मार्ग यह नहीं कि जैसे कहा जाता है ‘चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़, तुलसीदास तिलक जिसे तिलक करत रघुवीर’। उसको भी तिलक दिया, चल आगे चल। उनको नहीं पहचाना। हनुमान जी को नहीं पहचाना। क्या फायदा? कि एक व्यक्ति जिसने आत्म साक्षात्कार को प्राप्त नहीं किया उसकी क्या दशा होती है, यह तुलसीदास जी ने वर्णनति किया हुआ है। इसलिए आत्म साक्षात्कार होना बहुत आवश्यक है।
आत्म साक्षात्कार करने के लिए कोई कोइ ऐसे अजीब प्रश्न करते हैं कि, ‘आप ही क्यों करते हैं?’ भाई आप करो मुझे तो बड़ी खुशी होगी। आप आइए पधारिए, मैं आपको दस हार पहनाउं। मुझे छुट्टी करिए। अगर आप कर सकते हैं तो क्या करें। क्योंकि मैं कर सकती हूं इसलिए वो नाराज है। लेकिन अगर आप कर सकते हैं तो बड़ी अच्छी बात है। आप करिए ना। ये कोइ काम आसान नहीं। पहाड़ों जैसी कुंडलिनी उठाना आसान चीज नहीं है। लेकिन इसके लिए, कुछ कहना नहीं चाहिए, कि लोग तरह तरह की बातें करते रहते हैं।
इससे कोई हमारा क्या लाभ होने वाला है? हमको तो सब प्राप्त, हमारे पास तो सब कुछ है। लेकिन बांटे बगैर मजा भी नहीं आता। इसलिए मैं कहती हूं कि हम तो बड़े केपिटिलिस्ट हैं और हम बड़े भारी कम्युनिस्ट भी है। ये हमारे देश का धरोहर है। इसको जान लीजिए कि आपका और कोई धरोहर नहीं है और सबसे मूल्यवान धरोहर यह है। जिस दिन आप इसे प्राप्त करेंगे उस दिन सारा संसार आपके चरणों में लोटेगा।
यह लोग जब आए थे परदेस से, आते साथ इन्होंने इस भूमि की मिट्टी अपने सिर में लगा ली। और जब यह तुकाराम के स्थल पर गए थे देहू में और वहां जब ऊपर पहुंचे तो लोगों ने बताया कि मां, यह तो वहां मिट्टी पर अपना सिर रगड़ रहे थे। मैंने कहा क्यों?
कहने लगे मां चैतन्य जो है जमीन के अंदर से फूट पढ़ रहा था। चैतन्य की हम में से जैसे कि अंदर से फुआरे निकल रही हैं। यह एक आत्म साक्षात्कारी ही देख सकता है, क्योंकि उसने सत्य को पाया है। आपको ज्यादा ढूंढने की जरूरत नहीं है, आप अपनी उंगलियों पे जान सकते हैं कि सत्य क्या है और असत्य क्या है।
कोई आदमी है वो झूठा है, सच्चा है। कोई चीज है वो अच्छी है, बुरी है। कौन सा कार्य करना चाहिए। इसका पूरा विवेक आपको जब वह चैतन्य आप पा लेते हैं तो चैतन्य से ही सब जान लेते हैं। पर इतना ही नहीं इससे कहीं अधिक, कहीं ज्ञानी आप हो जाते हैं। और उस ज्ञान का कोई वर्णन नहीं किया जा सकता।
जैसे कि अब नानक साहब हैं, उन्होंने कहा है कि ‘कहे नानक बिन आपा झिनहे मिटे ना भ्रम की काई’। उन्होंने कहा जब तक अपने आप को आप पहचानोगे नहीं तब तक भ्रम मिट नहीं सकता। तो वह लोग अखंड पाठ करते हैं। अखंड पाठ ढाई दिन होता है। तो वो उंगली रखेंगे भैइ, यहां खत्म हुआ, अब इस से दूसरे आ के आदमी को उस उंगली पे पकड के फिर वो अखंड पाठ पडेंगे दो दिन, उसके बाद सर झुका कर के सब सो जाएंगे, शराब पियेंगे। रट रहे हैं।
‘बिन आपा खोजे मिटे ना भ्रम की काई’, रटने से क्या परमात्मा मिलेगा? वैसे कबीर दास जी ने एक खास बात कही है, कि ‘पड़ी-पड़ी पंडित मूर्ख भय’, जब मैं छोटी थी कबीर दास जी ऐसा क्यों कह रहे हैं? ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन पढ़ना और व्यक्तित्व में बहुत अंतर है। आदमी जब पड़ता है, कोई अगर गीता पे भाषण देता है, तो वह सोचता है कि वो व्यास मुनि हो गया। अहंकार बीच में खड़ा है, एक बड़ा भारी पहाड़ बनके। इसलिए भाषण देते वक्त लोग बातें ऐसी बड़ी-बड़ी करते हैं और अंदर से सारा खोखलापन होता है।
दो दिन उनके पास जाइए तो पता चलता है, हे भगवान! इतना यह खोखला आदमी यह इतनी बड़ी बड़ी बातें करता है, इसे कोई भी लज्जा नहीं आती है इस तरह कि बातें करते हुए? क्योंकि उसके अंदर धर्म नहीं है। उस में धर्म की शक्ति नहीं। जिस आदमी में धर्म की शक्ति होती है, वो कभी भी इस तरह कि असत्य बात कभी बाहर अंदर पूरी तरह से ऐसे खोखलेपन से जीवन नहीं बिता सकता।
मनुष्य के व्यक्तित्व के लिए आज जरूरी है कि आप अपने आत्मा को जान ले, उसके बाद आप अपने धर्म को भी जान जाएंगे, अपने शरीर को जान जाएंगे, अपनी प्रकृति को जान जाएंगे, अपने स्वभाव को जान जाएंगे, अपने चक्रों को भी जान जाएंगे। कम से कम मैं कहती हूं कि आपके गुरु हैं तो आपकी तंदुरुस्ती तो अच्छी रखें, पैसा तो खूब ले रहे हैं तंदुरुस्ती तो आपकी चौपट है। किसी को पैरालिसिस हो रहा है किसी को और कोई बीमारी हो रही है। और ऐसे लोग बुद्धि वादियों को बहुत अच्छे लगते हैं।
एक पुणे में एक गुरु हो गए, अब रहे नहीं भगवान की कृपा से, उनके शिष्य लोग आए थे, किसी को पैरालिसिस है, किसी को किडनी ट्रबल है, किसी की आंखें ऊपर चड रही हैं, किसी का–किसी को दिखाई नहीं देता, कोई अंधा हो गया, कोइ कुछ, कोई कुछ। तो मैंने कहा भाई आपके गुरु करते क्या थे? तो उनके जो शिष्य साहब बडे लंबा मुंह करके मुझे कहने लगे कि आपने ‘तरुणोंपाए गरुणोंपाए करुर्णोपाए’ सुना है? मैंने कहा नहीं भई नहीं सुना। कहां है? कहां लिखा है? कौन से शास्त्र में?
नहीं, नहीं! शास्त्र में नहीं है, हमारे गुरु जी ने हमें बताया है। अच्छा? यह कहां से बीच में से निकल आए आपके गुरुजी, जो कि सारे शास्त्रों को मना करके और अपनी तरफ से ही बता रहे हैं इस बात को? जो आदमी अपनी ही तरफ से नयी सीढ निकालता है और अपने को बड़ा अभिनव समझता है वह जीवंतता ले कर नहीं है। क्योंकि जीवंत चीज ऐसी होती है जो कि बीज से मूल, और मूल से उसकी पूरी दृष्टि होती है एक वृक्ष कि और फिर उस वृक्ष में ही जाकर के फल लगता है। यह नहीं कि फल कहीं आकाश से चला आए।
वो तो प्लास्टिक का होएगा। सारे शास्त्रों का आधार इस पर होना चाहिए। अब यह ज़रूर है की एक शास्त्र यहां लिखे गए समय-आचार के अनुसार, दूसरे शास्त्र के समय-आचार अनुसार वह लिखे गये। लेकिन जो इंसान उनका सार एक करके बताएं वही सतगुरु है। जो उन मैं ये दिखाएं कि यह गलत है और वह गलत है, वह आदमी सतगुरु नहीं है।
साईं नाथ, शिर्डी के साईं नाथ, उनके मैं जब जगह गई थी तो मुझे बडा आनंद आया, उन्होंने लिखा है कि किसी भी धर्म की निंदा करना महापाप है। धर्म चीज और है। और उस धर्म के पालने वाले उसके उल्टा मुंह करके बैठे हैं। इसलिए उनके पालने वालों से आप धर्म को गालियां मत दीजिए। धर्म चीज और है।
और धर्म का इसलिए लोग इस्तेमाल ऐसे करते हैं कि यही एक पाखंड से वह जिंदगी में रह सकते हैं।
जैसे हमारे बमबई में एक बार बड़ा भारी स्मगलिंग केस हुआ, तो जब उन्होंने विलायती शराब लाई, तो वो गीता की किताबें बना बना कर के झूठ मुठ कि उसके अंदर रख के लाए। क्योंकि गीता को कौन पूछेगा? इसी तरह से धर्म है, बड़ा भारी तिलक लगा लीजिए, एक नाटक बना लीजिए, और धर्म का नाम ले लीजिए तो लोग चले आपके पैर पे। धर्म के लिए संसार छोड़ने की जरूरत नहीं, घर द्वार छोड़ने की जरूरत नहीं, कोई चीज जब पकड़ी नहीं तो छोड़ेंगे ? अगर किसी ने किसी चीज को पकड़ा है तभी तो वो छोड़ेगा।
आज ठीक है हमारे पति हैं, उनकी एक फैमिली है, पिता कि एक फैमिली है, उनका एक ढर्रा है, उस घर में रहने का है, ठीक है उस ढंग में हम रह रहे हैं। कल अगर आप जंगलों में कहीए, जंगलों में रहेंगे। हमारी अपनी बाद्शाहत है। हम थोड़ी ना कि ये चीज़ चाहिए हमको वो कम्फ़र्ट चाहिए, हमको ऐर कन्डिशंइंग चाहिए। ये तो भिखारीओं के लक्षण हैं। और जो भिकारी होता है वो कोई गुरु नहीं हो सकता। जो आपके टुक्डों पे पलता है वो कोइ गुरु होगा? अगर कोई कहे कि मेरे घर में आकर के मुफ़्त रहें, तो आप रहीएगा?
जिस में इतना भी आत्मअभीमान नहीं, ऐसे लोगों को आप लोग गुरु मान लेते हैं, और उनको पैसा रूपया देते रहते हैं, बकवास सुनते रहते हैं, तो आपके लिए भी क्या कहा जाए? ऐसे लोग मार खाते हैं, उनकी कुंडलिनी हाथों-हाथ हो जाती है।
मैंने देखा है हताश इतनी बुरी तरह से होती है कि कभी-कभी किसी-किसी की कुंडलिनी जैसी कोइ, किसी ने मार-मार के उसके बिल्कुल (भजिया?) बना दि हो। इतने उसमें छेद दिखाई देते हैं और माँ छटपटाती रहती है बेचारी आपकी माँँ कि इसको किस तरह से मैं रियलाइज़ेशन दूं? इसका मैं कैसे उद्धार करूं? तो परिवर्तन होना चाहिए,
आपके अंदर परिवर्तन होना चाहिए और परिवर्तन ऐसा होना चाहिए कि दुनिया कहे चमकता हुआ ये सितारा है, ये चमक गया है। उसके मुंह पर एक ताज़गी आ गई है। इतना बढ़िया आदमी हो गया है। हमने ऐसे ऐसे देखे हैं कि एक रात में शराबी कबाबी आदमी था, इतना शराबी आदमी कि आके मुझे वो गाली दे रहा था और दूसरे दिन पार होते ही आप उनकी शक्ल नहीं जान सकते। क्योंकि आदमी समर्थ हो जाता है,
इतना शक्तिशाली होता है कि किसी भी तरह की गंदगी, किसी भी तरह की बुराइयां, किसी भी तरह की गुलामी वो नहीं कर सकता। हमको कोई संत साधुओं से थोड़ी कहना पड़ता था कि भई तुम शराब मत पियो। उनके लिए कोई शराबबंदी थोड़ी करनी पड़ती थी, वह स्वयं इतने शुद्ध थे कि जहां जाते थे वहीं लोग इसको छोड़ देते थे। लेकिन इतना ही नहीं जिस वक्त आप सत्य को प्राप्त होते हैं, तो उसका एक प्रकाश, उस प्रकाश में जब आप दूसरों को देखते हैं, तो आपको नज़र-अंदाज आ जाता है कि इस आदमी को क्या परेशानियां हैं और उसकी सहायता कैसे करें।
सबसे बड़ी तो बात यह है कि सत्य का प्रकाश स्वयं प्रेम है, और प्रेम में एक क्षमा है, हर समय आदमी चाहता है कि किसी को क्षमा कर दे। और जब कोई सहजयोगी आके कहता है, “मां इस आदमी को क्षमा कर दीजिए”, तो मुझे बड़ा आनंद मिलता है। कि देखिए इसने कैसे सहानुभूति से कहा क्षमा कर दीजिए ये ठीक हो जाएंगे। इस तरह से जिसको हम सत्य समझते हैं उस को हम सोचते हैं कि सत्य वाला आदमी एकदम ऐसे होता है जैसे कि दुर्वासा।
अधिकतर जो लोग सत्य की बात करते हैं वो अधिकतर ऐसे ही होते हैं, बड़े कठिन जीव कि उनके आगे आप खड़े नहीं हो सकते। लेकिन जो परमात्मा के सत्य को जानता है, वो प्रेम का सागर होता है, वह करुणा का सागर होता है,
उसके एक दृष्टि के कटाक्ष से आपका पूरा निरीक्षण हो जाता है, इतना ही नहीं लेकिन आपकी सारी दुविधाएं दूर हो सकती हैं। यह बात सत्य है, इसको आप आज़माएं और देखें। लेकिन जो अहंकार पूर्ण हैं उनके लिए सहजयोग नहीं है। उनके लिए सहजयोग नहीं है।
जो नम्रता-पूर्वक सहजयोग में आना चाहें उन ही के लिए सहजयोग है, अहंकारी लोगों के लिए सहजयोग नहीं है। इसलिए कृपया ध्यान दीजिए कि जो लोग अहंकार पूर्ण हैं, यहां पर कुछ तमाशा देखने आए हों, उनके लिए बेहतर होगा कि वह कहीं जाकर और अच्छा तमाशा देखें। जो अपना तमाशा देखना चाहते हैं, जो खुद को देखना चाहते हैं, जो आपा छिनना चाहते हैं, वो यहां पर बैठे। इसी से आप सत्य को जानेंगे और सत्य को जानने का मतलब कभी भी बुद्धि से नहीं होता है, लेकिन “आत्मने वासे दृष्टा” आत्मा से ही आत्मा को जाना जाता है।
ये बड़ी कमाल की चीज है, कि जब आत्मा हमारे अंदर जागृत होता है, तब इस आत्मा से ही हम सर्वव्यापि इस आत्मा को जान सकते हैं। इसलिए बुद्ध ने पहले कह दिया कि तुम भगवान कि बात ही मत करो, पहले तुम आत्म साक्षात्कार की बात करो। उस पर कि लोग कहते हैं कि उनका तो ईश्वर पर विश्वास नहीं था, यह सही बात है। ईश्वर की बात करो तो लोग खुद ही को ईश्वर कहने लगते हैं। इससे बेहतर है कि पहले आत्मा को प्राप्त हों। पहले आत्मा को लें। आत्मा को जानें। और यह सबसे बड़ी चीज है, जो हमको मिलते ही हम एक दूसरे साम्राज्य में जाते हैं, एक नए व्यक्तित्व में जाते हैं।
अब बहुत से लोग ऐसा भी प्रश्न पूछते है, कि मांँ इससे गरीबी कैसे हट सकती है? बिल्कुल हट सकती है। गरिबी मन कि होती है। गरिबी पैसे कि नहीं होती। गरिबी मन कि होती है। आपको आश्चर्य होगा कि जब चैतन्य पूर्ण जो पानी है, यह अगर आप अपने अनाज को दें, तो उसकी जो फ़सल होती है वो दस गुना ज़्यादा हो सकती है। अभी हमारे यूएनओ (UNO) में एक शिष्य हैं हमीद नाम है, मुसलमान है, ईरान के, उन्होंने अभी प्रयोग किया हुआ है, और उसमें दिखाया की चैतन्य पूर्ण पानी से एक पेड़ कितना बड़ा हो सकता है।
सूरजमुखी के फूल पे उन्होंने प्रयोग किया था। और जिसमें कि आप बहुत सारे खाद डालते हैं वह भी उससे छोटा ही रहता है और जिसमें कुछ नहीं डालते वह बिल्कुल गिर जाता है। इसका मतलब यह है कि जब चैतन्य पूर्ण चीज आप कहीं भी देते हैं तो उस से एक समृद्धि आ जाती है, समृद्धि आ जाती है। हम देखते हैं खेतों में जाते हैं कभी, पूछते हैं भाई ये किसका खेत है? सहज योगी का।
अब पहचानेंगे। समृद्धि आ जाती है और उस समृद्धि का एक ही तरिका है कि परमात्मा से आशीर्वादित आत्मा आप बनिए। उसके अनेक हाथ हैं, उसके अनेक आशीर्वाद हैंं, उस के दरबार में किसी चीज की कमी नहीं है, और उसकी गवर्नमेंट इतनी एफिशिएंट है कि बस आप उससे कोई बात कह दें, हो जाती है। पर पहले उससे कनेक्शन तो हो जाए। बगैर कनेक्शन ही के अगर आप उसे परेशान करिएगा तो आप गिरफ्तार हो जाएंगे। इसीलिए बेहतर है कि आप उससे अपना कनेक्शन कर लें। सबसे आसान चीज है, इस में कुछ नहीं करना। सहज। “सह” आपके साथ, ‘ज’ पैदा हुआ।
ऐसा यह योग जिस पर आपका जन्म सिद्ध हक है जिसे आप प्राप्त करें। और अगर हिंदुस्तानीऔ ने ही नहीं प्राप्त किया तो मैं किसके आगे सर फोड़ूँगी। आप ही के लिए यह है और विशेषकर इस भारतवर्ष में बड़ा भारी योग की देन है, इस पृथ्वी के एक-एक, कण-कण में श्री रामचंद्र जी नंगे पैर चले। आकाश में आपको दिखाई नहीं देता होगा, मुझे सब दूर चैतन्य दिखाई देता है। जैसे ही हिंदुस्तान में हमारा प्लेन आ जाता है, चैतन्यमय, चारों तरफ चैतन्य फ़ैला हुआ है। आशा है आपको भी ऐसी आंखें मिल जाएं जिस से आप भी इस चैतन्य को देख सकें और उसका वर्णन कर सकें।
इस सत्य के अनेक स्वरूप हैं। जिसके बारे में एक लेक्चर में, मैं कितना आपसे बताऊं सो कम है। इस पे अनेक मैंने लेक्चरज़ दिए हैं, यहां तक कि इंग्लैंड में कम से कम मेरे दो-तीन हजार लेक्चर हो गये होंगे अंग्रेज़ी भाषा में ही और हिंदी भाषा में भी और मराठी भाषा में।
जैसी भी यह भाषा मैंने मराठी, हिंदी सिखी है मैने बचपन में, और हिंदी भाषा मैंने कभी सिखी नहीं थी और अंग्रेज़ी भाषा भी मैंने कभी सिखी नहीं थी, लेकिन मेरे ख्याल से जब तक हृदय से आप बात करते हैं तो कोई भाषा कि खास विशेषता नहीं रह जाती। भाषा हृदय तक भिड जाए ये ही बस चाहिए। और आपके हृदय में आपकी आत्मा की जागृति हो जाए यही मैं चाहती हूं।
परमात्मा आप सब को सुमति दे।
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